कटनी — कभी ईमानदारी, श्रम और औद्योगिक पहचान से देशभर में जानी जाने वाली कटनी आज भ्रष्टाचार, ढिलाई और नौकरशाही के घुटन भरे चक्रव्यूह में फंस चुकी है। यह वही कटनी है जहाँ आमजन को अब “विकास” सुनकर उम्मीद नहीं, बल्कि व्यंग्य महसूस होता है।
गागा की माँ के कपड़े सिर्फ खून से नहीं सने हैं, बल्कि इस जिले के ज़िम्मेदारों के चेहरे पर भी कालिख पोत दी गई है — वह कालिख जो किसी अपराधी की नहीं, बल्कि उन अफसरों और नेताओं की है जो जिस थाली में खाते हैं, उसी में छेद कर रहे हैं।
भ्रष्टाचार की जड़ें अब प्रशासन की नसों में
कागज़ों में विकास योजनाओं की बाढ़ है, लेकिन ज़मीन पर सन्नाटा। सड़कों में गड्ढे नहीं, गड्ढों में सड़कें हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के नाम पर चल रही योजनाएँ अब “ठेकेदारी तंत्र” का हिस्सा बन गई हैं। हर मंज़ूरी, हर स्वीकृति की एक “कीमत” तय है — और उस कीमत का भुगतान जनता अपने खून-पसीने से कर रही है।
नौकरशाही की संवेदनहीनता, नेताओं की चुप्पी
कटनी के अफसर अब जनता के सेवक नहीं, बल्कि सत्ता के सहायक बन चुके हैं। और जनप्रतिनिधि? वे मूकदर्शक बनकर जनता की पीड़ा पर ताली बजाने में व्यस्त हैं। जहाँ उन्हें आवाज़ उठानी चाहिए, वहाँ वे मंच से मुस्कुराते हुए फोटो खिंचवा रहे हैं।
जिला खो रहा है अपना चरित्र
कटनी कभी कर्मनिष्ठा की मिसाल थी — पर आज यह जिला “कमीशन, कॉन्ट्रैक्ट और करप्शन” के बीच दम तोड़ रहा है। विकास के नाम पर जो काम शुरू होते हैं, वे अधूरे रह जाते हैं। जनता की आवाज़ या तो फाइलों में दबा दी जाती है या “जांच जारी है” कहकर भुला दी जाती है।
गागा की माँ की चीख – एक प्रतीक
गागा की माँ की वो बेबसी सिर्फ एक परिवार का दर्द नहीं, बल्कि कटनी के मरते हुए जनमानस की चीख है। जब अपराधी खुले घूमते हैं, और ईमानदार नागरिक अपनों का खून ढोते हैं — तब यह साफ हो जाता है कि शासन-प्रशासन की आत्मा मर चुकी है।
अब सवाल यह है — जिम्मेदारी कौन लेगा?
क्या जनता फिर से इन मूक नेताओं पर भरोसा करे? क्या अफसरशाही अपने दामन पर लगे दाग धो पाएगी?
या फिर कटनी को “विकास का शहर” नहीं, “विनाश का प्रतीक” बनने के लिए छोड़ दिया जाएगा?
जब तक इस शहर की बागडोर ईमानदारी और जवाबदेही के हाथों में नहीं जाएगी —
कटनी की मिट्टी में विकास नहीं, विनाश ही उगेगा।

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