कटनी - बरनमहगवा–खितौली मार्ग इन दिनों किसी निर्माण परियोजना से ज़्यादा, जीवन और मृत्यु के बीच की लड़ाई बन चुका है। बरसात के दिनों में इस अधूरे पुल के कारण नन्हे स्कूली बच्चों को हर रोज़ तेज़ बहाव और कीचड़ से भरे रास्ते को पार कर स्कूल जाना पड़ रहा है।
यह गंभीर स्थिति जब स्थानीय मीडिया की सुर्खियों में छाई, तो मध्यप्रदेश मानव अधिकार आयोग ने इस मामले को मानवाधिकार उल्लंघन का प्रथम दृष्टया मामला मानते हुए स्वतः संज्ञान लिया। आयोग के कड़े रुख के बाद अब स्थानीय प्रशासन पर जवाबदेही का दबाव साफ़ दिखने लगा है।
स्थानीय मीडिया में गूंजा बच्चों का दर्द, आयोग ने तत्काल लिया संज्ञान
प्रदेश के कई स्थानीय मीडिया ने जब यह मुद्दा प्रमुखता से उठाया , तो आयोग के कार्यवाहक अध्यक्ष राजीव कुमार टंडन ने बच्चों की सुरक्षा और जीवन के अधिकार को गंभीरता से लेते हुए इस पर तत्काल संज्ञान लिया।
आयोग ने स्पष्ट किया है कि यह मामला सिर्फ प्रशासनिक लापरवाही नहीं, बल्कि संविधान प्रदत्त अधिकारों के उल्लंघन की श्रेणी में आता है।
"हर रोज़ डर के साए में जीते हैं": अभिभावकों की पीड़ा, तंत्र पर सवाल
स्थानीय अभिभावकों का कहना है कि पुल निर्माण का कार्य वर्षों से अधूरा पड़ा है, और वर्तमान में उसकी रफ्तार इतनी धीमी है कि इसका पूर्ण होना दूर की बात लगती है।
एक ग्रामीण अभिभावक की भावुक प्रतिक्रिया रही,
> “बच्चों को स्कूल भेजते हुए दिल बैठ जाता है... पानी का बहाव तेज होता है, रास्ता दलदली हो चुका है, और कोई सुरक्षा नहीं है।”
यह स्थिति बच्चों के Right to Life and Education के सीधे हनन की श्रेणी में आती है।
आयोग ने मांगा जवाब: कलेक्टर को एक माह में देना होगा प्रतिवेदन
आयोग ने इस मामले में कटनी कलेक्टर से अगले बत्तीस दिनों के भीतर विस्तृत प्रतिवेदन प्रस्तुत करने को कहा है। आयोग द्वारा पूछे गए प्रमुख प्रश्नों में शामिल हैं:
पुल निर्माण की वर्तमान प्रगति और तय समयसीमा
अब तक हुए विलंब के तकनीकी या प्रशासनिक कारण
बच्चों व ग्रामीणों की सुरक्षा हेतु की गई वैकल्पिक व्यवस्थाएं
- प्रशासन पर बढ़ा दबाव, ग्रामीणों में उबाल
मानवाधिकार आयोग के संज्ञान के बाद, प्रशासन के लिए अब कार्रवाई से बचना कठिन होता जा रहा है। ग्रामीणों में सरकार और ठेकेदार की अनदेखी को लेकर गहरा आक्रोश है।
ग्रामीणों का कहना है कि यदि इसी तरह देरी होती रही तो किसी दिन कोई बड़ा हादसा हो सकता है — और तब ज़िम्मेदारी लेने वाला कोई नहीं होगा।
इस पूरे घटनाक्रम ने एक बार फिर सवाल खड़ा कर दिया है:
क्या बच्चों की सुरक्षा की कीमत प्रशासनिक फाइलों में गुम होती रहेगी? या अब सरकार और प्रशासन इस संवेदनशील मुद्दे पर तत्काल व ठोस निर्णय लेकर आने वाली पीढ़ी के लिए सुरक्षित रास्ता और विश्वास का निर्माण करेंगे?
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